'दि हिन्दू 'अख़बार में मोदी सरकार के आठ वर्षों के आठ मुख्य न्यायाधीशों पर एक लंबा लेख छपा था।अंग्रेज़ी में होने के कारण हिन्दी के पाठकों तक यह लेख नहीं पहुँच सका। हमारे एक मित्र ने इसका अनुवाद कर दिया है। लेख लंबा है लेकिन पढ़ना चाहिए। कहीं त्रुटि नज़र आए तो ज़रूर बताएँ। संशोधन कर दिया जाएगा। अनुवादक अपना नाम नहीं देना चाहते हैं। उनके इस प्रयास के लिए आभार। -रवीश कुमार
ए पी शाह
अपने सबसे अहम रूप में,भारतीय सर्वोच्च न्यायालय भारत के संविधान का संरक्षक है। इस भूमिका में, इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करना है कि नागरिकों को संविधान के तहत जिन मौलिक अधिकारों की गारंटी दी गई है वह राज्य द्वारा कमजोर, नष्ट या अन्यथा बाधित न किए जाएं। भले ही अपने अस्तित्व का आरंभ इसने एक अप्रतिरोधी अदालत के रूप में किया हो, लेकिन दशकों में, यह दुनिया में अपने समरूपों में सबसे शक्तिशाली अदालत बन गया है ऐसा मैं मानता हूं।
यह श्रेष्ठ स्थिति कम से कम तीन रूपों में प्रकट होती है। सबसे पहले, केशवानंद भारती मामले में अपने फैसले के माध्यम से, न्यायालय ने संवैधानिक संशोधनों के मामले में न्यायिक समीक्षा की शक्ति ग्रहण की। दूसरे, कई फैसलों के माध्यम से, इसने अपने और उच्च न्यायालयों में न्यायिक नियुक्तियों की शक्ति ग्रहण की। और तीसरे, इसने नागरिकों को अद्वितीय और व्यापक सुरक्षा की गारंटी देकर और जनहित याचिका के माध्यम से अदालतों का दरवाजा खटखटाने का अधिकार सुनिश्चित करके संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का विस्तार किया।
इसके शीर्ष पर भारत के मुख्य न्यायाधीश या सीजेआई बैठते हैं। सीजेआई पदभार से संबंधित कर्तव्य और जिम्मेदारियां देश में किसी भी अन्य भूमिका से विलग हैं। कम से कम सैद्धांतिक रूप से, सीजेआई को असामान्य रूप से उच्च स्तर की न्यायिक और प्रशासनिक प्रतिभा का प्रदर्शन करना चाहिए। पदभार से जुड़ी जिम्मेदारियों के प्रतिदर्श में उच्च न्यायपालिका में नियुक्ति के लिए न्यायधीशों का चयन करना, सामान्य न्यायिक कर्तव्यों का पालन करने के अलावा विभिन्न प्रकार के मामलों पर निर्णय लेने के लिए पीठों की संख्या और संरचना तय करना शामिल है। जैसा कि जॉर्ज एच गडबोइस कहते हैं, मुख्य न्यायाधीश को 'एक सक्षम प्रशासक, लोगों की पहचान और व्यक्तित्वों की समझ की क्षमता युक्त प्रभावशाली व्यक्तित्व संपन्न' होना चाहिए।
लेकिन, परिस्थितिवश, और कुछ हद तक वांछित रूप से भी, भारतीय न्यायपालिका में वरिष्ठता के आधार पर भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की परंपरा का विकास हुआ। नतीजतन, मुख्य न्यायाधीश नियुक्त होने वाला व्यक्ति वांछित गुणों को प्रदर्शित करने के कारण नियुक्त नहीं होता, बल्कि अपने दायित्व निर्वहन के क्रम में ही इन कौशलों को विकसित करने के लिए मजबूर हो जाता है, और कुछ ने वैसा पूरे विश्वास के साथ किया भी, यथा, न्यायमूर्ति सुब्बा राव, न्यायमूर्ति वेंकटचलैया और न्यायमूर्ति जेएस वर्मा। हालांकि, वरिष्ठता की परंपरा का एक दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा यह है कि मुख्य न्यायाधीशों का कार्यकाल अल्पकालीन हो जाता है। 75 वर्षों में ही, भारतीय सुप्रीम कोर्ट में 49 मुख्य न्यायाधीश हो चुके हैं। 1980 के दशक में जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ का कार्यकाल सात साल से अधिक का रहा जो असाधारण रूप से लंबा था, जबकि दूसरी ओर, जस्टिस के एन सिंह का कार्यकाल केवल 17 दिनों के लिए रहा ।
तीन अवधियाँ
मुख्य न्यायाधीशों की यह बड़ी संख्या पदभार के विकास और कार्यपालिका के साथ न्यायपालिका के संबंधों का अध्ययन करने के लिए एक दिलचस्प डेटा सेट प्रदान करती है, जिसे मोटे तौर पर निम्नलिखित युगों में वर्गीकृत किया जा सकता है। 1950 से 1971 तक, मुख्य न्यायाधीश के पास न्यायिक नियुक्तियों पर वीटो लगाने की सीमा तक पूर्ण अधिकार था, और मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश का हमेशा पालन किया जाता था।
1971 और 1993 के बीच, मजबूत एकल पार्टी सरकारों ने केंद्र पर कब्जा कर लिया, और कार्यपालिका ने अदालत पैकिंग के स्पष्ट प्रयास में सुप्रीम कोर्ट में 'प्रतिबद्ध न्यायाधीशों' की नियुक्ति पर जोर दिया। कई अधिक्रमण हुए, कार्यपालिका ने मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में विशेषाधिकार का प्रयोग किया, और वरिष्ठता की परंपरा का खुले तौर पर उल्लंघन किया गया। एक चौंकाने वाला झटका 1981 में पहले जजों के मामले (एसपी गुप्ता) के फैसले के साथ आया, जहां यह माना गया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं होगी।
1993 में दूसरे न्यायाधीश के मामले के साथ, और उसके आसपास जब न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचलैया ने सीजेआई के रूप में पदभार संभाला, प्रवृत्ति पलट गई और न्यायपालिका ने व्यावहारिक रूप से कार्यपालिका से नियुक्तियों की शक्ति वापस ले ली। न्यायिक प्रधानता और कॉलेजियम का निर्माण इसी अवधि में हुआ, और हांलाकि कॉलेजियम ने मनमानेपन और अलोकतांत्रिक होने के लिए काफी कुख्याति हासिल की है, तथापि यह आज भी विद्यमान है।
जब हम भारतीय सर्वोच्च न्यायालय और सीजेआई के पदभार के क्रमिक विकास की जांच करते हैं, तो यह न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच सत्ता के निरंतर हस्तांतरण और पुनर्संतुलन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है"
जब हम भारतीय सुप्रीम कोर्ट और सीजेआई के पद के क्रम विकास की जांच करते हैं, तो यह न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच सत्ता के निरंतर हस्तांतरण और पुनर्संतुलन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। जब कार्यपालिका शक्तिशाली थी, आमतौर पर एक पार्टी के बहुमत के माध्यम से, जैसा कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकारों में था, न्यायपालिका व्यावहारिक रूप से कार्यपालिका के नियंत्रण के आगे झुक गई। हालांकि, जब अपेक्षाकृत कमजोर गठबंधन सरकारें चुनी गईं, तो न्यायपालिका ने अपनी शक्तियां वापस बहाल कर लीं।
यह पुनर्संतुलन अब फिर से चल रहा है। 2014 के बाद से, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के तहत कार्यकारिणी एक बार फिर एकल पार्टी बहुमत की है। नतीजतन, न्यायपालिका की शक्तियां पहले की तुलना में कमजोर हैं, और कार्यपालिका फिर से नियंत्रण में है। हम लोकतांत्रिक संस्थाओं के धीमे विनाश, जांच एजेंसियों के दुरुपयोग, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, और नागरिकों को उपलब्ध संवैधानिक सुरक्षा में धीरे-धीरे कटौती के माध्यम से कार्यपालिका की निरंकुश प्रवृत्तियों में वृद्धि देख रहे हैं, जिनसे निपटने में एक कमजोर न्यायपालिका या तो असमर्थ है या इससे निपटने की अनिच्छुक है।
2014 से 2022 तक, मोदी सरकार के आठ साल तक, आठ व्यक्ति सीजेआई के पद पर आसीन रहे हैं; 41 वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा से लेकर 48 वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति एन वी रमना तक । यह लेख यह जांचने का प्रयास करता है कि उनके कार्यकाल ने न्यायालय और सीजेआई के पदभार के क्रमिक विकास में कैसा योगदान दिया है।
मोदी युग के सीजेआई
2014 में मोदी सरकार के पहली बार सत्ता में आने से ठीक पहले, सीजेआई जस्टिस पी. सदाशिवम थे, जिन्होंने दुर्भाग्य से पद छोड़ने के लगभग तुरंत बाद केरल के राज्यपाल पद को स्वीकार करने का फैसला किया। यह असामान्य और यकीनन अनियमित नियुक्ति उचित कूलिंग पीरियड के बिना की गई थी, और भाजपा सरकार की अपनी नीति के खिलाफ भी थी क्योंकि अरुण जेटली ने खुले तौर पर घोषणा की थी कि सेवानिवृत्ति पर न्यायाधीशों को नौकरी देने से सरकारों को अदालतों को प्रभावित करने में मदद मिलेगी। इसने भविष्य के न्यायाधीशों के लिए एक खतरनाक मिसाल कायम की, जिसका प्रभाव आज भी देखने को मिलता है।
जिसे कार्यकारिणी द्वारा चुनौती के रूप में देखा जा सकता है वह न्यायमूर्ति सदाशिवम के उत्तराधिकारी न्यायमूर्ति आर.एम. लोढ़ा को,साहसिक और अपरंपरागत निर्णय लेने से रोक नहीं पाई ।विशेष रूप से, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में बार से बेंच में सीधी नियुक्तियों की निष्क्रिय प्रवृत्ति को पुनर्जीवित किया, एक ऐसी प्रथा जिसे संविधान के तहत अनुमति तो दी गई थी, लेकिन शायद ही जिसका कभी प्रयास किया गया था। उनकी सिफारिशें ज्यादातर सफल रहीं, लेकिन एक प्रसिद्ध विफलता भी रही, गोपाल सुब्रमण्यम की नियुक्ति की सिफारिश जिसे सरकार ने अस्वीकार कर दिया । न्यायपालिका के साथ यह मोदी सरकार का पहला टकराव हो सकता था, और न्यायमूर्ति लोढ़ा ने बाद में भी कहा कि वह श्री सुब्रमण्यम की नियुक्ति को आगे बढ़ाने के लिए तैयार थे, लेकिन वकील ने खुद अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली, जिस कारण टकराव दरकिनार हो गया। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में सुधारों पर अपनी रिपोर्ट के लिए जस्टिस लोढ़ा घर-घर जाने गए। विडंबना यह है कि उनकी रिपोर्ट को बाद में उसी न्यायालय ने पूरी तरह से कमजोर कर दिया जिसने प्रथमत: सुधारों की सिफारिश करने के लिए समिति नियुक्त की थी।
सीजेआई के रूप में जस्टिस लोढ़ा का अनुसरण करने वाले जस्टिस एचएल दत्तू के नेतृत्व में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच पहला बड़ा टकराव हुआ। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम की वैधता से संबंधित चौथे न्यायाधीश के मामले को पांच न्यायाधीशों की पीठ के पास भेजा गया था और इस पर तीखी बहस हुई । न्यायपालिका अपनी जमीन पर अड़ी रही और अंततः विजयी हुई, और एनजेएसी अधिनियम, जो कि निस्संदेह एक दोषपूर्ण कानून था उसे रद्द कर दिया गया। हांलाकि कॉलेजियम न्यायिक नियुक्ति की एक मनमानी, गोपनीय और अलोकतांत्रिक प्रक्रिया है, और इसके संचालन में संचार और पारदर्शिता महज वांछनीय नहीं है तथापि प्रस्तावित एनजेएसी का डिजाइन इसका उचित समाधान नहीं था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट एनजेएसी अधिनियम में खामियों को ठीक कर सकता था, शायद इसकी कमियों को दूर करने के लिए प्रावधानों को खारिज़ (रीड डाउन) कर, लेकिन ऐसा नहीं करने का विकल्प उसने चुना।
एनजेएसी के फैसले के बाद भी मामले सुलझ नहीं पाए और उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों के लिए प्रक्रिया ज्ञापन कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच विवाद का केंद्र बिंदु बन गया । तनाव तब भी जारी रहा जब न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर ने सीजेआई के रूप में पदभार संभाला। वह मोदी युग के आखिरी सीजेआई थे, जिन्होंने न्यायिक प्रशासन और नियुक्तियों के मामलों में थोड़े मज़बूत मेरुदंड होने का प्रदर्शन किया । अत्यधिक बोझ से दबी भारतीय न्यायपालिका की दुर्दशा को पुरजोर रूप से उजागर करने और इस क्रम में एक बार प्रधानमंत्री की उपस्थिति में आंसू बहाने के अलावा, न्यायमूर्ति ठाकुर ने रिक्तियों को भरने के तंत्र पर कड़ी मेहनत की और इस संबंध में एक महत्वपूर्ण फैसला भी लिया । उन्होंने राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड का प्रवर्तन किया, जो आज न्यायिक प्रणाली के सभी स्तरों को जोड़ता है और वादियों को प्रचुर जानकारी उपलब्ध कराता है।
लेकिन उनके सुधार प्रयासों ने एक विवादास्पद मोड़ ले लिया जब उन्होंने उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के लगभग 20 के स्थानान्तरण का प्रयास किया। इतने बड़े पैमाने पर तबादलों का प्रयास करने वाले वह पहले न्यायाधीश नहीं थे; न्यायमूर्ति वेंकटचलैया और न्यायमूर्ति एस.एच. कपाड़िया ने भी यह कोशिश की थी, लेकिन तबादलों के लिए उनकी प्रेरणा हमेशा स्पष्ट नहीं थी, और उनके प्रयोग यकीनन विफल रहे क्योंकि कई स्थानांतरित न्यायाधीशों को प्रत्यावर्तित किया गया। कानूनी विशेषज्ञों और यहां तक कि पूर्व न्यायाधीशों ने भी खेद व्यक्त किया कि इस तरह के स्थानांतरण न्यायाधीशों के साथ सिविल सेवकों की तरह व्यवहार करने के समान है, और न्यायपालिका की स्वतंत्रता और समग्र अखंडता के लिए एक गंभीर खतरा है। न्यायमूर्ति ठाकुर के कुछ स्थानांतरण आदेश स्पष्ट रूप से अच्छे नहीं थे, और जल्द ही पलट दिए गए ।
दुर्भाग्य से, स्थानांतरण आज तक जारी हैं, कई मनमाने और अनुचित हैं, और किसी प्रलेखित नीति का पालन नहीं कर रहे हैं। विवादों पर कटाक्ष करने के बावजूद न्यायमूर्ति ठाकुर सरकार के सामने खड़े होने वाले अंतिम प्रधान न्यायाधीश भी रहे। यहां तक सुप्रीम कोर्ट कार्यपालिका का सामना करते हुए अपनी बात पर कायम रहा था। इसके बाद हालात पूरी तरह से बदल गए।
सिख समुदाय से भारत के पहले सीजेआई जस्टिस जे एस खेहर का कार्यकाल आठ महीने से भी कम का था, जिसमें वह निजता के अधिकार और ट्रिपल तलाक फैसलों सहित कई ऐतिहासिक फैसलों में पक्षकार थे। न्यायमूर्ति खेहर के कार्यकाल ने सुप्रीम कोर्ट में रोस्टर के प्रबंधन में पारदर्शिता और निष्पक्षता की कमी पर बहस को भी पुनर्जीवित किया; एक ऐसा मुद्दा जो इसके बाद कई सीजेआई के कार्यकाल तक बदस्तूर बना रहा ।
अरुणाचल प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री, कलिखो पुल द्वारा एक सुसाइड नोट में कुछ अप्रमाणित आरोप, जो स्वयं न्यायमूर्ति खेहर सहित कई न्यायाधीशों के खिलाफ थे, अदालत के ध्यान में आए। आरोपों की सत्यता पर ध्यान दिए बिना, न्यायमूर्ति खेहर ने जिस प्रक्रिया का पालन किया, उसकी ना तो कोई मिसाल थी और ना ही वह औचित्यपूर्ण थी । सुप्रीम कोर्ट ने वीरस्वामी मामले में अपने ही फैसले में कहा था कि उच्च न्यायपालिका में किसी के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही केवल सीजेआई के परामर्श से शुरू की जा सकती है। इसके अलावा, अगर सीजेआई के खिलाफ सीधे आरोप लगाए गए, तो सुप्रीम कोर्ट के अन्य न्यायाधीशों से अनुमति लेनी पड़ सकती है। श्री पुल की पत्नी ने न्यायमूर्ति खेहर को पत्र लिखकर नोट में उल्लिखित न्यायाधीशों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने की अनुमति मांगी। खुद का नाम होने के बावजूद, सीजेआई ने अपने हिसाब से, हितों के टकराव की सभी चिंताओं की धज्जियां उड़ाते हुए, पत्र को एक रिट याचिका (एक प्रशासनिक प्रश्न को न्यायिक में परिवर्तित करना) के रूप में सूचीबद्ध करने का विकल्प चुना। गंभीर रूप से, इसने नैसर्गिक न्याय के बुनियादी सिद्धांतों की पूर्ण अवहेलना को प्रदर्शित किया, और दूसरों के अनुसरण के लिए एक गलत उदाहरण स्थापित किया।
न्यायमूर्ति खेहर के कार्यकाल के दौरान एक अन्य विवादास्पद घटनाक्रम उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति सीएस कर्णन को अदालत की अवमानना के लिए दोषी ठहराया जाना और बाद में कारावास देना था। न्यायालय की अनुशासनात्मक शक्तियों और अवमानना क्षेत्राधिकार के दुरुपयोग की भर्त्सना करने के अतिरिक्त, कई लोगों ने उच्च न्यायपालिका के एक सदस्य को हटाने के लिए संसद के किसी अधिनियम में अनन्य विशेषाधिकार की अनदेखी करने की वजह से इस निर्णय को असंवैधानिक माना। न्यायिक नियुक्तियों की मूल समस्या को नजरअंदाज कर दिया गया, साथ ही इस सवाल को भी नजरअंदाज कर दिया गया कि कुछ न्यायाधीश पर्याप्त जांच के बिना उच्च न्यायपालिका में कैसे पहुँच जाते हैं।
अगले सीजेआई न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा थे, जिनके कार्यकाल को उनके चार साथी न्यायाधीशों द्वारा आयोजित अभूतपूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए याद किया जाता है, जिसमें सीजेआई के आंतरिक प्रशासनिक निर्णयों की निंदा की गई, विशेष रूप से मामलों के आवंटन में बेंच स्ट्रेंथ और बेंच संरचना के अदालती परंपराओं का पालन नहीं किए जाने का और इसका कि सीजेआई ने बिना किसी तर्कसंगत आधार के चुनिंदा मामलों को अधिमान्य पीठों को सौंप दिया था। ट्रिगर था बृजगोपाल हरकिशन लोया का मामला, उनकी मृत्यु के ईर्द-गिर्द षड्यंत्र के सिद्धांत, और मामले को रोस्टर और परंपरा के विपरीत किसी निश्चित बेंच को आवंटित करने का निर्णय।
मास्टर ऑफ रोस्टर और हितों के टकराव का मुद्दा भी सामने आया। न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ एक प्रतिबंधित मेडिकल कॉलेज में दाखिले के ईर्द-गिर्द रिश्वत खोरी से संबंधित एक संदिग्ध सीबीआई मामले की सुनवाई कर रही थी, जिसमें उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के मौजूदा न्यायाधीशों को रिश्वत देने के प्रयासों के आरोप भी शामिल थे। अलग-अलग याचिकाओं में इस मामले में अदालत द्वारा विनियमित जांच की मांग की गई थी, जिसमें हितों के टकराव के कारणों से इस मामले को सीजेआई की पीठ के अलावा किसी अन्य पीठ के समक्ष सूचीबद्ध करने का अनुरोध किया गया था। मामले को खुद सुनने की बजाय अलग हो जाने के, जैसा कि औचित्य और सामान्य समझ की मांग होती, न्यायमूर्ति मिश्रा ने इन याचिकाओं पर खुद सुनवाई करने का विकल्प चुना, यहां तक कि खुद सीजेआई की शक्तियों के दायरे पर भी फैसला सुनाया। आखिरकार, बहुत सारे ट्विस्ट और टर्न के बाद, याचिकाओं को भारी जुर्माने के साथ खारिज कर दिया गया, लेकिन इससे न्यायपालिका के भीतर हितों के टकराव के बारे में बहस केवल अधिक तेज ही हुई ।
वह पहले सीजेआई भी थे, जिनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था, हालांकि अंततः इसे राज्यसभा द्वारा रद्द कर दिया गया। इन विवादों के बावजूद, न्यायमूर्ति मिश्रा सीजेआई के रूप में अधिकतम संवैधानिक पीठों की स्थापना करने में कामयाब रहे और अधिनिर्णय और निपटान के बीच संतुलन प्राप्त करने के लिए उन्होंने लगातार प्रयास किया।
अगले सीजेआई, जस्टिस रंजन गोगोई का भी कार्यकाल विवादास्पद रहा । वह पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वालों में से एक थे, और उन्होंने "शोर करने वाले न्यायाधीशों" को सिस्टम पर अधिक सवाल उठाने के लिए प्रोत्साहित किया था। हालांकि, हितों के टकराव की पूर्ण अवहेलना ने उनके कार्यकाल में सबसे प्रमुख मोड़ ले लिया, जब जस्टिस गोगोई सुप्रीम कोर्ट के एक कर्मचारी द्वारा खुद के खिलाफ की गई यौन उत्पीड़न की शिकायत की सुनवाई (हालांकि उन्होंने आदेश पर हस्ताक्षर नहीं किए) में बैठ गए। इस शिकायत से निपटने में नैसर्गिक न्याय के सभी सिद्धांतों को तोड़ा गया। सीजेआई द्वारा स्वयं आरोपों की जांच के लिए एक समिति गठित करने के अलावा, सीजेआई को दोषमुक्त करने वाली समिति की रिपोर्ट भी शिकायतकर्ता को नहीं बताई गई, आम जनता को बताने की बात तो छोड़िए ही। उनकी शिकायत अनुचित बर्खास्तगी और उत्पीड़न के बारे में भी थी, जिसे लगता है कि समिति द्वारा संबोधित नहीं किया गया । बहुत बाद में, उन्हें अगले सीजेआई बोबडे के अधीन सेवा में बहाल कर दिया गया।
न्यायमूर्ति गोगोई गोपनीयता से भी ग्रस्त थे, और नियमित रूप से जानकारियों को 'सीलबंद लिफाफे' में अदालत को प्रस्तुत करने के लिए कहा जाने लगा (यह तब से बंद कर दिया गया है जब न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने इस प्रथा की निंदा की।) इसका असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC), राफेल विवाद, चुनावी बांड जारी करना, इत्यादि जैसे मामलों में उपयोग किया गया । एनआरसी मामले में, जिस तरह से न्यायपालिका ने कार्यपालिका की भूमिका अख्तियार कर ली, लाखों लोगों के नागरिकता के अधिकार को धुंध में रख छोड़ा, टिप्पणीकारों ने इसे 'कार्यकारी अदालत' के उदय के रूप में व्याख्यायित किया । अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण के मद्देनजर जम्मू और कश्मीर से दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं के प्रति उनके रवैये ने एक प्रख्यात वकील को यह कहने के लिए प्रेरित किया कि "गोगोई कोर्ट ने लापरवाह गति से, सदियों पुराने स्थापित बंदी प्रत्यक्षीकरण कानून पर रथ दौड़ा दिया है ।" उनके कार्यकाल में, जिसे कुछ कानूनी विशेषज्ञ 'न्यायिक बहाने' के रूप में वर्णित करते हैं, वह भी बढ़ गया; सुप्रीम कोर्ट कुछ मामलों को जो विशेष रूप से देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थे, जैसे कि चुनावी बांड मामला, नागरिकता संशोधन अधिनियम का मामला, अनुच्छेद 370 का निरस्तीकरण, आदि, पूरी तरह से सुनने से बचने लगा, या ऐसे मामलों पर बिना कोई परिणामी आदेश पारित किए उन पर बैठा रहा ।
न्यायमूर्ति गोगोई ने सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद संसद सदस्य (राज्यसभा) के रूप में नियुक्ति को भी स्वीकार कर लिया, और सेवानिवृत्ति के बाद न्यायमूर्ति सदाशिवम की नियुक्ति के समय न्यायपालिका के मामलों में बढ़ते कार्यपालिका और विधायी हस्तक्षेप के संबंध में व्यक्त की गई आशंकाएं फिर से सतह पर आ गईं । न्यायपालिका में कार्यपालिका के प्रति श्रद्धा का भाव पहले से ही बढ़ रहा था । इसी बीच एक परेशान करने वाली बात यह भी हुई कि लगभग इसी समय, न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और न्यायमूर्ति एमआर शाह द्वारा सार्वजनिक रूप से प्रधान मंत्री की प्रशंसा करने के साथ सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों में चाटुकारिता की प्रवृत्ति भी शुरू हो गई । जस्टिस गोगोई की बेंच ने लंबे समय से चले आ रहे अयोध्या विवाद को समाप्त कर दिया, लेकिन ज्ञानवापी और इसके अनंतर शायद काशी और मथुरा के साथ सांप्रदायिक संघर्ष का अंत होता दिख नहीं रहा है।
न्यायमूर्ति गोगोई के बाद न्यायमूर्ति शरद ए बोबडे प्रधान न्यायाधीश के रूप में आए, जिनका मोदी युग में सबसे लंबा कार्यकाल रहा; एक साल और पांच महीने से थोड़े अधिक समय तक का। इस दौरान न्यायपालिका को प्रौद्योगिकी के साहसपूर्वक प्रयोग करने का अवसर मिला, लेकिन इस दौरान न्यायपालिका की सरकार के प्रति अधीनता की भावना और भी बढ़ी। जस्टिस गोगोई के नेतृत्व में शुरू हुई न्यायिक बहाने की प्रथा उनके कार्यकाल में भी जारी रही। इस अवधि में अदालत द्वारा कुछ मामलों को अधिमान्यता दिए जाने की भी घटनाएं सामने आईं, जैसे कि, पत्रकार सिद्दीकी कप्पन बनाम अर्नब गोस्वामी की जमानत के मामलों में ।
सीजेआई बोबडे की पीठ ने एक अभूतपूर्व आदेश में विवादास्पद कृषि कानूनों पर भी रोक लगा दी, और इस मुद्दे की जांच के लिए एक समिति नियुक्त की, जिसमें ऐसे व्यक्ति शामिल थे जिन्होंने पहले से ही सार्वजनिक रूप से कानूनों का समर्थन किया था। न्यायमूर्ति बोबडे को अदालत का दरवाजा खटखटाने के साधन के रूप में अनुच्छेद 32 के तहत याचिकाओं के दायर किए जाने के प्रति नाराज़गी व्यक्त करने के साथ-साथ उच्च न्यायालयों से कोविड मामलों पर निर्णय लेने का अधिकार छीनने का प्रयास करने के लिए भी याद किया जाएगा। महामारी के दौरान भारत में प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा एक त्रासदी थी और इस स्थिति के प्रति सुप्रीम कोर्ट का रवैया ज़मीनी हकीकत से दूर उन शीश महलों में रहने को दर्शाता है जो उसने अपने लिए बना रखे थे।
इन विवादास्पद फैसलों के बावजूद, न्यायमूर्ति बोबडे ने न्यायिक लंबित मामलों के निपटान हेतु तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति पर दिशानिर्देश जारी करके न्यायिक सुधार का प्रयास किया। उल्लेखनीय यह भी है कि उनके कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट में एक भी नियुक्ति नहीं की गई। न्यायमूर्ति बोबडे उच्च न्यायालय के सम्मानित वरिष्ठ मुख्य न्यायमूर्ति अकील कुरैशी को न्यायाधीश के रूप में सिफारिश करने के अनिच्छुक थे, जिन्होंने संयोग से सरकार के एक उच्च पदाधिकारी के खिलाफ आदेश भी जारी किया था। दूसरी ओर जस्टिस नरीमन उनके नाम की सिफारिश करने पर अड़े रहे। इससे कॉलेजियम के भीतर गतिरोध पैदा हो गया, और यह कॉलेजियम की तथाकथित स्वतंत्रता के बारे में बहुत कुछ कहता है।
इस अवधि में अपना कार्यकाल पूरा करने वाले नवीनतम मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन. वी. रमना हैं। जस्टिस रमना आधुनिक युग में सुप्रीम कोर्ट के सबसे सार्वजनिक रूप से दिखाई देने वाला चेहरा रहे हैं। भाषण देने और देश भर में बड़े पैमाने पर जनता के साथ जुड़ने के अलावा, न्यायमूर्ति रमना ने सुप्रीम कोर्ट के पुराने गौरव को भी कुछ बहाल किया है। संस्था एक बार फिर 'सेंटिनल ऑन द क्वि विवे' अर्थात सतर्क संरक्षक प्रतीत होने लगी है। कुछ जमानत आदेशों और स्थगनों (जैसे, राजद्रोह), और पेगासस जांच आदेश की वजह से न्यायपालिका में जनता का विश्वास भी बढ़ा है।
अस्तु, उनके कार्यकाल में उनके सहयोगी न्यायाधीशों के कुछ फैसलों ने नागरिक स्वतंत्रता को गंभीर रूप से कमजोर भी किया है। धन शोधन रोकथाम अधिनियम पर निर्णय, जो गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (वटाली मामले) में न्यायालय के पहले के फैसले की तर्ज़ पर था, का प्रभाव लोगों को लगभग अनिश्चित काल के लिए हिरासत में रखने का हुआ, जिसकी तुलना एकमात्र एडीएम जबलपुर मामले से की जा सकती है । तीस्ता सीतलवाड़/जकिया जाफरी और हिमांशु कुमार मामले भी उन्हीं की निगाहों के तले हुए, जिनसे ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट उन याचिकाकर्ताओं को अपराधी की श्रेणी में डाल रहा है जिन्होंने नागरिक स्वतंत्रता के मामलों पर अदालत का दरवाजा खटखटाने की हिम्मत की ।
यह ध्यान देने योग्य है कि न्यायमूर्ति रमना ने उच्चतम न्यायालय में सभी पदों को भी भर दिया और प्रणाली में विविधता को प्रतिनिधित्व देने के लिए प्रत्यक्ष कदम उठाते हुए कई महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति सहित उच्च न्यायपालिका में काफी बड़ी संख्या में नियुक्तियां कीं। दुर्भाग्य से, न्यायिक बहाने की प्रथा न्यायमूर्ति रमना के कार्यकाल में जारी रही, और ना किसी संवैधानिक पीठ का गठन किया गया, और न ही महत्वपूर्ण मामलों को उठाया गया।
भविष्य
सुप्रीम कोर्ट की अध्यक्षता आज भारत के 49वें मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति यू यू ललित कर रहे हैं, जिनका कार्यकाल तीन महीने से भी कम का होगा। यद्यपि उनके कार्यकाल पर कोई ठोस टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी, लेकिन जिस कम समय के लिए वह पद पर हैं, न्यायमूर्ति ललित पहले ही दिखा चुके हैं कि मामलों को दाखिल करने और सूचीबद्ध करने की प्रक्रियाओं में सुधार के माध्यम से रजिस्ट्री में सुधार किया जा सकता है। उन्होंने बेंचों के गठन और कुछ प्रारंभिक फैसलों, जो उन्होंने दिए हैं, के माध्यम से पहल की है,यथा, कप्पन और सीतलवाड़ मामलों में, उन व्यक्तियों को जमानत देना जिनके संबंध में मूल अभियोग स्वयं आधारहीन था। ये सभी घटनाक्रम न्यायपालिका के प्रति आस्थावान बनाते हैं और उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट जैसी कभी परिकल्पना की गई थी संविधान का सच्चा अभिरक्षक और मौलिक अधिकारों का संरक्षक होने की अपेक्षित भूमिका की कसौटी पर खरा उतरेगा।
"आने वाले दशकों में, सुप्रीम कोर्ट को कई मोर्चों, विशेषकर कार्यपालिका से चुनौतियों का सामना करना पड़ता रहेगा"
आने वाले दशकों में सुप्रीम कोर्ट को कई मोर्चों पर, खासकर कार्यपालिका से चुनौतियों का सामना करते रहना पड़ेगा। इस पर भारतीय न्यायपालिका, विशेष रूप से निचली अदालतों, जो हाल के दिनों में कई मामलों में लड़खड़ाती नजर आ रही हैं, को मजबूत करने की नई जिम्मेदारियां भी होंगी। अवर न्यायाधीशों द्वारा समर्थित एक गतिशील और विचारशील नेतृत्व को यह सुनिश्चित करने में सक्षम होना होगा कि सम्यक रूप से इन चुनौतियों का सामना किया जाए और जिम्मेदारियों को पूरा किया जाए। भारत का सर्वोच्च न्यायालय, साथ ही सीजेआई के पदभार का भी क्रमिक विकास होता रहेगा किंतु उम्मीद है कि यह केवल सही दिशा में होगा ।
अजित प्रकाश शाह दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और भारत के विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष हैं।
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